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कोया पुनेम में "टोण्डा - मण्डा - कुण्डा" का दर्शन

" टोण्डा - मण्डा - कुण्डा संस्कार " और कोया पुनेम / सरना पुनेम / धर्म पुर्वी अवधारणा / गोण्डी पूनेम /प्रकृति मार्ग की अवधारणा

#कोया_पुनेम
हम आदिवासी प्रकृति से प्रेम करते हैं और प्रकृति हमसे प्रेम करती है 

टोण्डा, मण्डा, कुण्डा, ऐ तीन संस्कार कोया पुनेम / प्रकृति मार्ग में प्रचलित है, इसके पीछे बहुत ही सरल दर्शन छुपा हुआ है क्योंकि कोया पुनेम / प्रकृति मार्ग / धर्मो के अस्तित्व के पूर्व की व्याख्या / सरना पुनेम / गोण्डी पूनेम, जीवन की " जटिलताओं " को सरल ढंग से समझाने का दर्शन है। 
जैसे "टोण्डा" याने नार / लता, जब बड़ने लगती है तो उसके पल्लवन ( पुष्पन ) के लिए एक मण्डा / मडप /मचान की आवश्यकता होती है ताकि लता के फलने के वक्त उसके फल जमीन पर टीक कर खराब न हो या दुसरे शब्दों में जमीन में टीके फल के बीज बरसात में बीज धारण करने से पूर्व ही सड़ जाती है। यहाँ बीज / पुर्नऊत्पादक का तात्पर्य "कुण्डा "( एक प्रकार का गोल मिट्टी का पात्र जिसमें मृतक के जीवा को पुरखा पेन के रूप में लाया जाता है ) से है। उपरोक्त को समझने के लिए प्रत्येक गोण्डवाना / आदिवासी घर के बाड़ी में " गोण्डरी " के होने और उस "गोण्डरी" के एक ओर " मण्डा "/ मचान होने और उसमें लौकी / कद्दू के लता को रोपने के सामान्य प्रचलित उदाहरण से समझ सकते हैं, अर्थात एक प्रकृति चक्र जिस तरह "लता - पल्लवन - बीज " का चक्र चलता है इसी तरह गोण्डवाना / आदिवासी व्यवस्था में जन्म - विवाह - मृत्यु " का चक्र चलते रहता है। 

कोया पुनेम और वैज्ञानिक सिध्दांत  

गर्भ में गर्भ नाल / नार / लता / टोण्डा के द्वारा शिशु जुड़ा रहता है जन्म लेने पर " नाभि से गर्भ नार के अलग होने का संस्कार " टोण्डा " संस्कार ( जन्म संस्कार ) जिसे नार गायता की उपस्थिति में किया जाता है। इसी नाभि वाले नार में " स्टेम सेल " का अस्तित्व रहता है, जो कि भविष्य के चिकित्सा शास्त्र का मुख्य फोकस हैजिसे हड़प्पा मोहनजोदड़ो सभ्यता में भी इसी गोण्डीयन टेक्निक से "जीवान्श" मानकर नाभि के सुखने या टोण्डा संस्कार तक सुरक्षित रखने का परम्परा परिलक्षित होती है। 

शिशु के विकास क्रम में "लया लयोर "( युवक युवतियों ) को " गोटूल ऐजुकेशन सिस्टम" से ज्ञान

कुवांरो के अनियंत्रित / अपरिपक्व व्यवहार को समाज प्रमुखों द्वारा "लिगों के टोटेमिक सिस्टम" के आधार पर विवाह मण्डप / मण्डा / गाड़कर उन्हें "मरमिंग" ( शादी ) द्वारा नव जोड़े को पल्लवित होने देना ताकि उसके "डीएनए" में संचित जानकारी आने वाली पीढ़ियों में सही तरीके से हस्तांतरित हो सके। 
फिर मानव के मृत्यु के बाद उनके जीवन पर्यंत अर्जित ज्ञान ऊर्जा को " कुण्डा " रूपी बीज के रूप में " पेन" रूप में पुनः सम्मिलित करना, यही है "टोण्डा - मण्डा - कुण्डा" प्राकृतिक व्यवस्था जिसे दुनिया के हर कोने के आदिवासी समुदाय किसी ना किसी रूप में पालन करते हैं। 

© नारायण मरकाम