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कोयतोर परम्परा "फसल मिंजाई"

दुनिया के सबसे सुव्यवस्थित जीवनशैली के साथ मुदियाल गाटो(डोकरा भात) - पेन - कड़ा(कोठार)- कोसोकोसोडुमागोनागोण्डरा - वट्टी -पोया-ढुसी आदि कोया पुनेमी शब्दो -सिद्धांतो को आइये समझते हैं

कोयतोर-परम्परा-"फसल-मिंजाई"
कोयतोर परम्परा से धान  मिंजाई करते हुए 
दरअसल बीज संग्रहण व संवर्धन का केन्द्र कड़ा / कोठार कहलाता है अर्थात बीज को उसके बेहतर स्वास्थ्य व तकनीकी के साथ अपने आने वाली पीढ़ी तक ले जाने का केन्द्र धान्य कोठार कहलाता है । ठीक इसी तरह #पेन ऊर्जा को आने वाली पीढ़ीयो के हितार्थ संयोजित संवर्धित करने का स्थल #पेन कड़ा कहलाता है । धान्य कोठार मे जिस तरह साल
दर साल बीजो का चक्रण होते रहता है ठीक उसी तरह पेन कोठार मे भी हर साल या चार या सात बारह साल मे पेन करसाड़ द्वारा पेन ऊर्जा का चक्रण होते रहता है ।
दौड़ी  बेलन द्वारा धान मिजाई तकनीकी से धान कम तुटता है पैरा लम्बी ही बनी रहती है, पैरा भी कम तुटता है साथ ही आईल की गंध नही होने से पशुओ के लिए बेहतरीन सुखे चारा के रूप मे भी इस्तेमाल किया जाता है । इससे मिंजाई करने से यह "बेंट" भी अच्छे से बनता है "बेंट" एक तरह की ऐसी रस्सी है जिसके गोंडी नाम पर एक सरनेम "वट्टी" भी प्रदान किया गया है यही नही इसी "वट्टी" से एक कोयतोरिन टेक्नोलॉजी का अदभूत उपकरण "#ढुसी" भी बनाया जाता है , जिसमें रखी अनाजो को धुन नही लगता और न ही उनके बीजो मे नमी या फंफुदी का संक्रमण हो पाता है यह गोण्डीयन जीवन शैली मे बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान देते हुए आया है खासकर पीढीयो द्वारा अर्जित ज्ञान रूपी बीजो को अपने आने वाली पीढ़ी तक बचाऐ रखने के लिए । इसलिए व्यक्ति की मृत्यु उपरांत जब उसका पेन नेंग / पेनकरण किया जाता है तो "ढुसी" नेंग द्वारा ही मृतक के बेटियो - बहनो को गोण्डीयन कानून के अनुसार सम्पूर्ण "चलसम्पत्ति का अधिकार दिया जाता है और ऐसा कानून पुरी दुनिया को संदेश देता है कि स्त्री पुरुष समानता के लिए आदिवासी समुदाय से अभी और बहुत कुछ सीखने की जरूरत है .
इसी पैरा(धान की ढंठल) से बने हुए रस्सी अर्थात "बेंट"/वट्टी से ही मानव ने आग पर काबू पाने या नियंत्रित उपयोग करने की तकनीक विकसित किया एक तरह से यह उस जमाने के टार्च ,माचिस और हिटर तीनो का काम करती थी (आज भी अन्दरूनी गांवो इसे प्रमुखता से इस्तेमाल करते है ) इसी तकनीकी की खोज का श्रेय "#पोया" ( हिन्दी धुआँ शब्द से ) गोत्र के लोगो को देते हुए कई मुहावरे कहानिया गीत प्रचलित है। यह मेरे लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मै भी इसी गोत्र की एक उपशाखा से सम्बन्धित हुॅ। वापस पुनः धान्य कोठार की ओर लौटे तो इसी धान के पैरा से धान कोठार मे ही एक बैठने का स्टूलनुमा गद्देदार उपकरण भी बनाया जाता है । मिजाई के समय
जब धान के बांलियो के पिरी (पैरा)से पुरी तरह मुक्त होने का अनुमान होता है तो किसान मिजाई करने फैलाऐ फसल मे से कुछ पिरी को निकाल कर उसे जलाकर देखता है यदि चावल लाई फुटने का "चट-चट" आवाज आए तो मिंजाई अपूर्ण है और आवाज नही आता तो फसल मिजाई पुरी तरह हो गई है अर्थात ढंठल से धान अलग हो गया है । इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया मे बचे काले राखनुमा अवशेष को "कोसो" कहते है इसी कोसो से पुरे धान्य कोठार का "बंधन" किया जाता है इस बंधन से हमे धान चोरो की जहा सूचना मिलती है वही यह चिटियो जैसे जीवो से भी सुरक्षित रखती है इस वैज्ञानिक सम्मत वृताकार बंधन रेखा को पवित्र "गो" से "गोण्डरा " नाम दिया गया है । मूलत: पेन शक्तियो के ऊर्जा द्वारा इस पवित्र "को" शब्द से निर्मित "कोसो" बंधन को हमारे आदिम पूर्वज हानाल डुमा "#कोसोडुमा" के नाम समर्पित करते हुए इसी कोसो के अन्दर केन्द्र मे स्थापित "माई खुंटा " पर प्रथम उत्पादित चांवल को पकाकर साल / साजा के पवित्र पत्ते की चिपटी बनाकर रखते है फसल के बीजो को उड़ाने के पश्चात इसे घर के किसी नाती/ पुत्र को "कोसो" "डुमा " के नाम खाने दे दिया जाता है । इस दौरान बीजो को साफ करने के लिए हवा की दिशा जानते रहना बहुत जरूरी है इसलिए इसके केंद्र मे स्थित माई खुंटा मे एक छोटे डण्डे के सहारे एयरोडायनामिक सिस्टम लगाया गया होता है जो अधिकतर पिपल जैसे पतले पत्ते से बना होता है जो वायु की दिशा व गति को भी लगातार इंगित करते रहता है इसी आधार पर किसान वायुगतिकी , अपकेन्द्रण बल , गुरूत्वाकर्षण के नियमो को अपने सुपली "हेती" की मेजिकल मूवमेंट से कंकड़ व बदरे को धान से अलग कर पाते है इसलिए मानव विकास मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले इस "हेती" को गोण्डीयन जीवन मे प्रमुख भूमिका देते हुए जब कोई व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त करते हुए पेन बन जाता है तो पेन करण या मृत्यु संस्कार के दिन उनके बेटि-माईयो द्वारा इसी "हेती" को भारी प्यार और सम्मान के साथ गिफ्ट स्वरूप वितरण किया जाता है जो इस प्यार और सम्मान के बीज को आने वाली पीढ़ीयो मे लगातार सिंचते जाती है यही अदभूत गोण्डीयन संस्कृति है यही प्यार का दर्शन कोया पूनेम है।

बुम गोटूल यूनिवर्सिटी बेडमा माड़ बस्तर - © नारायण मरकाम